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*** गजल ***

*** तेरी नज़र ***

" छुप-छुपा के देखती हैं ओ नज़र,
की अब कौन सा सलाह मसवारा करे हम,
उलफ़ते-ए-हयात अब जो भी हो जैसे भी हो,
इस नजवाइश से पहले कभी गुजरे नहीं हम,
हसरतों की नुमाइश क्या करते ऐसे में हम ,
बात जदं थी ऐसे फिर बात क्या करते हम,
किस कदर फिर तेरी बातें की जाये,
गुनजाइश कुछ भी गवारा हो तो हो कैसे हमें,
अजनबी वो भी ठहरी गैर भला मैं भी ठहरा,
ऐसे में कौन सा तालुकात करते ऐसे में हम ,
मज़र तेरे ऐसे एहसासों का जिना अब आ रहा हमें. "

--- रबिन्द्र राम