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पहली दूसरी आख़री का तो नहीं पता लेकिन मुझे उसके दुःख ने खींच लिया था और मुझे उस से मोहब्बत हो गई । ये ग़लत था उसकी नज़र में भी और समाज की नज़र में भी लेकिन बस मुझे ज़िद थी दिल की सुनने की और बस आख़री बार दिल से कुछ करने की। यकीन कर सको तो करना मैंने उसकी ज़िन्दगी को आसान बनाने की ऐड़ी-चोटी कोशिश की। वो खुश तो होती थी लेकिन उसकी बातें बस दुःखों के आस-पास की ही होतीं। हमारे दुःखों में भी जमीन-आसमान का फर्क था। उसके दुःख मुझे महसूस होते थे लेकिन वो कभी निकल नहीं पायी अपने दुःख से मेरे दुःखों तक मरहम लगाने। मेरे अंदर का इंसान जब भी उसके करीब गया उससे मेरे अहसान चुकाने की बू आती थी। आपकी मोहब्बत जिसके लिए एहसान हो जाये तो आपको वैसी मोहब्बत उस शख्स से नहीं मिलती जो आपको सकून दे।
वो शख्स आपकी मोहब्बत भूल सकता है लेकिन आपका उस पर अहसान नहीं। क्या हो अगर आपके ज़ज़्बात को एहसान मान लिया जाये? साथ भले ही न छूट पाये लेकिन आपके ज़ज़्बात अगर पहले जैसे हों भी तो ज़ाहिर करना मुनासिब नहीं।
वही हुआ मेरे साथ... ख़ामोशी मोहब्बत की आख़री सीढ़ी होती है कुछ लोग साथ-साथ चढ़ते हैं कुछ लोग अकेले।
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