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सदियों से मीठा होने को प्रतीक्षारत सागर आत्मसात कर रहा है मीठी नदियों को हर रोज़।
विफल हो रहा है नदियों का भी प्रयास सदियों से एक क़तरा भी सागर का जो मीठा न हो पाया अब तक।
शायद सागर से इस संसार को अपेक्षायें कुछ ज़्यादा हैं या बिल्कुल भी नहीं हैं जिस वजह से सागर में इतना खारापन है जिसे चाहकर भी वो खत्म नहीं कर पाता या सिर्फ अपना खारापन ही दिखाता है सबको, सिर्फ नदियों को छोड़कर क्यूंकि कैसे कोई इतनी सदियों तक प्रयासरत रह सकता है वो भी वहाँ, जहाँ उसका खुद का अस्तित्व ही खत्म हो रहा हो? या यह सम्पूर्ण प्रेम का एक उदाहरण है जहां प्रेयसी अपना अस्तित्व मिटा रही है, अपने प्रेमी के लिए। जहाँ वो उसकी कमियों (खारेपन) को खत्म करने का प्रयास कर रही है अपनी विशेषता (मिठास) को पूर्ण रूप से उसे देकर, उसमें विलीन होकर। जिस तरह एक स्त्री अपनी इच्छाओं को दबाती आई है सदियों से अपने प्रियवर के लिए। शायद इसीलिए नदी को स्त्री रूप माना गया है और इसी तरह सागर भी दबाये रखता है अपने अंदर का उपद्रव किसी पुरुष की ही भाँति।
लेकिन नदियों का ये प्रयास कभी तो पूरा होगा कभी तो सागर मीठा हो पायेगा शायद तब हम देख पाएंगे प्रेम को पूर्ण होते हुए, शायद तब हम समझ पाएंगे प्रेम को, प्रेम की सीख को जो सदियों से यही रही है कि "प्रेम देने का नाम है बदले में बिना कुछ चाहे।"
शायद इसी उम्मीद में सागर समाहित करता है हर नदी को खुद में कि प्रेम सम्पूर्ण हो सके दोनों का एक दिन।
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