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पता नहीं कैसे ये जिम्मेदारी की डोर एक इंसान को अचानक जीवन के सारे हिसाब-किताब सिखा देती है। रातें भी छोटी हो जातीं हैं और अपने ख़ास चेहरे भी अंजान से हो जातें हैं। पता ही नहीं चलता कब जिम्मेदारी को निभातें हुये हम पारदर्शी हो जातें हैं।
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