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जब जाड़े का मौसम हो और चारों ओर घना कोहरा छाया हो तो किसी अलाव से उठता हुआ आशा की नई किरण लेकर आती हो जैसे रात में ही प्रभात हो गई हो और जब वह धुंआ धीरे धीरे सुलगती है तो वह अपने तपन से वहां आने जानें वालों को आकर्षित करती हैं उस समय हमें एकता का नया दृश्य देखने को मिलता है कोई गंभीर विषय पर चर्चा को या हंसी मजाक कुछ इसी तरह उस अलाव को तापते हुए कटती है ये सर्दी के दिन मगर एक समय बाद जब "कक्ष तापक" का आगमन हुआ है इसने इस एकता को खंडित करने का काम किया है क्योंकि अब वो ज्यादातर सार्वजनिक न होकर निजी हो गया है हां ये और बात है की किसी समारोह में यह या किसी बड़े कक्ष में इसे लगाया गया हो मगर इसमें उस “बोरसी” जैसी बात नहीं है असल में बोरसी एक कच्ची मिट्टी का पात्र की तरह होता है जिसे धूप में सुखा कर बनाया जाता है हमारे गांव में यह आज भी काफ़ी लोकप्रिय है और जिसे जलाने के लिए लकड़ी और उपले की भी जरूरत पड़ती है हमारे यहां उपले को "गोइठा" भी कहा जाता है।

मैंने कुछ जगह देखा है की कहीं पर तगार का उपयोग किया जा रहा था जो की एक जगह से दुसरे जगह आराम से नहीं ले जाए जा सकते हैं उसके कारण वह पूर्णतः सुरक्षित हैं क्योंकि धातु का बने होते हैं और पात्र सहित गर्म हो जाते हैं और जबकि बोड़सी में ऐसा नहीं है वह मिट्टी से बने होते हैं और वह पात्र सहित कम गर्म होते हैं जिसे आसानी से कहीं ले जा सकते हैं वहीं बिजली से चलने वाला "कक्ष तापक" बिना बिजली के भी नहीं चल सकता है अधिक बिजली की खपत भी करता है और जबकि बोड़सी को कभी भी इस्तेमाल कर सकते हैं वैसे सार्वजानिक अलाव तो केवल एकता के भूखे हैं अगर उनके पास बोरसी न भी हो तो वे लोग ज़मीन पर जलावन भी इकट्ठा कर लेटे हैं इस लेख का आशय बस इतना था कि एक लोगों को पास ला रही है और दूसरा अकेला कर रही है। धन्यवाद 🙏🏻🌷

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