...

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मेरी कल्पना
कल्पना की एक रोज़ मैने एक अच्छे आदर्श समाज की,
इंसानियत से लबरेज़ कल्पना की एक अच्छे इंसान की,
जहां हर भूखे की भूख मिटाने खटकते संसद के द्वार की
और जहां कोई न सोए तारों की चादर ओढ़े आसमां की,
जहां फिर सभ्यता संस्कृति के रंग खिल उठे उस समाज की,
हां कल्पना की मैने विश्व की हर ऊंचाई छूते अपने भारत की,
राग द्वेष से प्रथक हर रिश्ते में मर्यादा और प्यार से भरे समाज की,
दरिंदगी और हैवानियत की खबरों से रहित छपते हर अख़बार की,
कल्पना है चहुं ओर शासन में उठती...