...

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शायद तुम रुक जाते
सोचा था कि,
जाने से पहले एक बार मिलकर जाते,
रुक कर थोड़ा मेरा ठिकाना देख जाते,
ये नम आँखें कुछ बातें बताती तो,
शायद उन्हें पढ़ कर रुक जाते।

बिस्तरों पर पड़ी सर्वटे,
सिरहाने रखी तकिया,
ये अंधेरा मेरे कमरे का,
बिखरी जुल्फें मेरी,
ये सूजी आँखें मेरी,
कहते-कहते यू सांस का भर आना,
शायद मेरा हाल यू देखते,
तो जाने की बातें ना करते,
तो शायद तुम रुक जाते।

यू खाली ख़ते रख टेबल पर ना चले जाते,
कुछ मजबूरियां जाने की,
खुद की ही लिख जाते,
यू खाली पन्नों में हजार सवाल छोड़ कर कैसे चले गए तुम,
अब किन जबाबों की तलाश में निकलू मैं,
एक बार मेरी खामोशी को ध्यान से सुनते,
तो शायद ये खाली ख़ते,
तुम्हे भर कर जाने के लिए सवाल मिल जाते,
तो शायद तुम रुक जाते।

माना कि समय कीमती था तुम्हारा,
बस चन्द लम्हें साथ के माँगें थे,
उधार थे, मालूम था,
किसी और के हक के मांगें थे,
खुसियों की चाहत,
समय की माप पर थी,
थोड़ा और रुकते तो शायद,
किसी और के हक का साथ छीन जाते,
अच्छा हुआ कि तुम चले गए।
© shivika chaudhary