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जाति धर्म और भेदभाव
अमीरी गरीबी का खेल हैं निराला ,
ऊपर से जाति और रंग ने भी अपना खेल, खेल डाला,
लोग तो बटे हुए थे पहले ही,
अब और क्या रहा हैं इस समाज में बाटने को,
यहा तो जानवरो को तक नही छोडा
गाय कब हिन्दू की हो गई और बकरा कब मुस्लमान का पता ही ना चला,
ये दुरी मिटते नही मिट रही,
कब आये समझ लोगो को ये छोटी सी बात,
मुस्किल नही है ये दुरी मिटाना लेकिन अब आसान भी नही लगता,
प्यार बाटने वालो से ज्यादा नफरत बाटने वाले हैं,
कोशिश करने वाले कोशिश में लगे है और ये दुरिया मिटाने में जुटे हैं,
लेकिन अब उने भी दूर दूर तक कोई सफलता नज़र नही आती,
क्योंकि अब उने भी प्यार बांटने वाले कम और नफरत बाटने वाले ज्यादा नज़र आ रहे हैं,
एक धर्म के लोग भी कहां है एक साथ,
उनमें भी तो ऊंच-नीच का फासला है बाकी,
और फिर ये गोरे काले का भेद भी हैं एक ही घर में रह कर भी लोग अलग अलग हैं,
काले गोरे के भेद ने दो बहनो को ही किया जुदा,
तो फिर ये जाति और धर्म तो उसके भी बाप हैं,
जब एक घर मे लोग काले गोरे का भेद लिए बैठे हैं तो फिर ये जाति और धर्म को मिटाना तो आसान नही हैं,
क्योंकि प्यार बांटने वालों से ज्यादा नफरत बाटने वाले हैं।





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