...

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गुलाम
वो ज़ुल्म-सितम, ऐसे करने लगे हैं,
हाँ में हाँ,ना में ना,हम करने लगे हैं।

उसने कहा मयखानों का रुख़ छोड़ दो,
हम आँखों के प्याले से मय पीने लगे हैं।

आती थी नींद कभी मखमली चादर में,
उसके आँचल में ही अब सोने लगे हैं।

भीड़ में भी कभी, खोए न थे हम,
उसके ख़्वाबों में ही अब खोने लगे हैं।

लोग जाते हैं, गंगा, क्षिप्रा के तट पर,
क़दमों में उसके, पाप धोने लगे हैं।


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