...

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जिसका मन निश्छल होगा...
न उलझनों-बींधी,टहनियां होंगी न वैर वैमनस्य के
बंधे बिखरे तार होंगे!!
निश्छल मन है उस अनंत का घर,
यहाँ पर स्वयं ईश्वर के वास होंगे!!

समय द्वंद उठें जो तेरे अंतर्मन में एक-एक कर
शांत सब, निराश होंगे!!
उजले मन में ,न हरगिज 'सागर' कलैह- क्लेश,
ये कलुषित रास होंगे!!

तेरे-मेरे, झूठे दंभ रखे है यहां दुनिया,
नभ ऊपर न तेरे-मेरे आकाश होंगे!!
एक बार झांक कर देखो हृदय में तर्क-वितर्क से परे,
सुख अवकाश होंगे!!

कुंठित उर परती धरा जैसा,अब्र प्रेम के इसपर
करते कुठाराघात होंगे!!
उलझके रहा कब अन्तर्मन सिंधु नागफ़नियों के दंश में,
न ये पास रहेंगे!!

जिसका मन निश्छल होगा,
वही अजीत... विश्वजीत कहलाया जायेगा !
तजकर,निशी के गहरे...काले तम,
ऐ निश्छल मन अब नव-प्रभात होंगे!!