...

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बाकी रह गये..
हम तो हमीं थें तुम भी तुम्ही रहे बस फर्क इतना था हम राहें बदलते रह गये ।
मिली न मंजिल दोनों को फिर कभी हम इस छोर तुम उस छोर खड़े रह गये ।।

खुशियाँ गिरवी रख खरीदी थी हमने दो पल की जान-ओ-ज़िन्दगी अपनी ।
क्या कहें ​ग़म के ब्याज और बढ़ चले हम दर्द का असल ही चुकाते रह गये ।।

जो करते थें ईमान-ओ-धरम की इबादत अपने सजदे मे हर पल शामों-सहर ।
नसीब क्या फिरा उनका जो वो इबादत लिए गली-चौराहों में बिककर रह गयें ।।

रात आँधी आयी थी जरा जोरों की,खड़े वो नौजवां दरख्त भी यूँ ऐसे उखड़ गये ।
स़हर-ए-आलम ये हुआ कि थमा जो ज़लज़ला ये मौसम का बाकी निशाँ रह गये ।।

ऐ 'अल्फाज़' तू क्यों फिरता रहा सवाल बनके यहाँ खुद ही जवाब के इंतजार में ।
बड़े बेरहम निकले ये दुनियाँ वाले,जो तुझसे तेरे ही दर्द-ए-सवाल दोहराते रह गये ।।

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