...

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दास्ता
आओ बैठो पास मेरे, दर्द की एक दास्ता सुनती हूं
एक फर्द की तस्वीर को ,में अपने फोन में छुपाती हूं
ख्वाबों में भी आजकल ,उसे अपने संग पाती हूं
छुपी हुई उस तस्वीर को, मैं अक्सर निहार आता हूं
बेख्याली में कई दफा, उसे प्यार हम राज बुलाती हूं
मगर देख दरमियां हिज्र, अपने में बेहद डर जाती हूं
क्या होगा बाद उसके, मैं तो ये सोच तक नहीं पाती हूं...
सोच हकीकत कई दफा में ,हद से ज्यादा घबराती हूं
जुदाई के बारे महज ख्याल से ,मैं तो टूट ही जाती हूं
वह मेरा नहीं है ,यह सोच सोच कर खुद को रुलाती हूं...
कुल हिसाब लगाने पर मैं,खुद को बदनसीब पाती हूं....