...

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मुफलिसी के दिन
ठंढ अब इस तरह सितम कर रही ,
चिथडो में भी दो बदन को ढाप रही ,

कुछ तो जिस्मानी ताप बढ रही ,
सर्दी के आग़ोश में दोस्ती सर चढ रही ,

क़रीने से सजा है वाडरोब किसी का ,
कोई ज़रूरत के लिए भी देखो तरस रही ,

ग़रीबी इक सच्चाई का आईना है ,
कम में भी जिंदगी बसर कर रही ,

देखना ज़रा ग़ौर से उन मुफ़लिसी आँखों में ,
मुस्कान आँखों में कंधे दूसरों ख़ातिर खडी रही ,

मीरू ये शिकन ज़रा दरकिनार कर ,
देख इंसानियत इनके अंदर हरबार रही ,
© Meeru
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