" जब आ खड़ी हुई मृत्यु सिरहाने "
जब आ खड़ी हुई मृत्यु सिरहाने ;
तब लगे महाशय उससे कतराने ,
बैठे हैं करने खुशामद और समझाने ;
मांगें कुछ दिन की मोहलत फिर मौत के नज़राने !
जीवन जो व्यस्त था स्वयं में अब तक ;
बिताना संग सबके चाहूँ कुछ क्षण सुहाने ,
कुछ उनकी सुनूं...कुछ अपनी सुनाऊँ ;
चाहूँ सबको मैं थोड़ा गले लगाने !
कर दूँ क्षमा हर उस जन को ;
जिनसे हुई गलती जाने - अनजाने ,
बिता लूँ कुछ सलोने दिन संग सबके ;
फिर अपने हों वो या हों बेगाने !
पर मृत्यु करे सवाल पलट खूब निराले ,
क्यों चला अंत समय में हर काम निपटाने ?
थी नाराज़गी जिनसे अब तक मन में तेरे ,
क्यों जाता तू अंत में उन रूठो को मनाने ?
शायद एहसानों के बोझ से बोझिल आत्मा तेरी ;
चाह रही अब...सबके पूरे ऋण चुकाने ,
इसलिए नफरत व ईर्ष्या से परिपूर्ण मन ये तेरा ;
भाग रहा अब...अपना अनोखा प्रेम दिखाने !
जब आ खड़ी हुई मृत्यु सिरहाने.....
© Shalini Mathur
तब लगे महाशय उससे कतराने ,
बैठे हैं करने खुशामद और समझाने ;
मांगें कुछ दिन की मोहलत फिर मौत के नज़राने !
जीवन जो व्यस्त था स्वयं में अब तक ;
बिताना संग सबके चाहूँ कुछ क्षण सुहाने ,
कुछ उनकी सुनूं...कुछ अपनी सुनाऊँ ;
चाहूँ सबको मैं थोड़ा गले लगाने !
कर दूँ क्षमा हर उस जन को ;
जिनसे हुई गलती जाने - अनजाने ,
बिता लूँ कुछ सलोने दिन संग सबके ;
फिर अपने हों वो या हों बेगाने !
पर मृत्यु करे सवाल पलट खूब निराले ,
क्यों चला अंत समय में हर काम निपटाने ?
थी नाराज़गी जिनसे अब तक मन में तेरे ,
क्यों जाता तू अंत में उन रूठो को मनाने ?
शायद एहसानों के बोझ से बोझिल आत्मा तेरी ;
चाह रही अब...सबके पूरे ऋण चुकाने ,
इसलिए नफरत व ईर्ष्या से परिपूर्ण मन ये तेरा ;
भाग रहा अब...अपना अनोखा प्रेम दिखाने !
जब आ खड़ी हुई मृत्यु सिरहाने.....
© Shalini Mathur