...

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" विजय का प्रकाश कहां "
अपने संग लपेट लेता है
पानी,
फिर भी समुंद्र खाली
नहीं होता,
कर लेता है सफर जिंदगी में,
किंतु वक्त से
विजय का प्रकाश कहां ?

रोशनी चुरा लेता चांद से,
धरती पर सुगंध छोड़ता कभी-कभी,
नभ में उड़ता एक उमंग लेकर,
पक्षी तरह उसे भूख कहां ?

स्वागत में झूमती हैं कलियां,
लगता गहरा संबंध हो उनका,
करता चक्रण संपूर्ण आसमा का,
परंतु स्वयं उसके पद कहां ?

मजबूर नहीं वो, इस क्रम को लेकर,
दौड़ता है ले बोझा, काले तुरंत जैसे,
रुलाता अपनी याद में तारों को,
फिर भी " वत्स " की,
उसको परवाह कहां ?