...

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अपनी पहचान बनाने आई हूं
सदियों से बंद उन झरोकों से निकल आई हूं
मन में दबे हर दर्द के कांच को फोड़ आई हूं
बहुत भागी उस एक अंधेरे की कोठरी से
पैरों में छाले लिए बहुत दूर भाग आई हूं
डरती थी जिस दुनिया में अकेले घूमने से
आज उस दुनिया से मैं नज़रे मिला आई हूं
खुद को अब मजबूत बनाने आई हूं
बंद उन झरोकों से निकल मैं आई हूं
हर भार हर ग्लानि को आंखें दिखाकर
मेरे अस्तित्व को मैं उठाने आई हूं
पहाड़ सी पहचान बनाने आई हूं।