...

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तलाश
मैंने
अपनी तलाश की
स्वयं में
और, उदास हीं रहा!
जबसे ख़ुद को
ढूँढा तुम में...
उल्लास हीं रहा!
तुम्हारे भीतर
मेरा हीं प्रतिरूप था...
मेरे अन्तःतल में
तुम्हारी प्रतिकृति!
विचारों का संगम
लहरों का उत्सव है
हृदय के सागर में!
हम क़ैद कर लेते हैं...
अपने हीं प्रतिबिम्ब को
अंतर्द्वंद्व के आईने में!
उत्सव भी तभी है...
जब खुले हों
घरों के बंद दरीचे!
----राजीव नयन