...

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खामखां
मैंने पल गवाए,
मैंने मिनट, घंटे,
दिन गवाए,
मैंने हफ़्ते, पखवाड़े,
महीने गवाए,
मैने साल गवाए,
और अब एक दशक
बीत चुका है।
गवाया हुआ दशक
मुझे देख रहा है।
मेरे विफ़ल होने के किस्से
कह रहा है।
मैन क्या खोया,
क्या गवाया, सब कुछ
कह रहा है बीता दशक
और मैं मूक बघिर बन
उसे सुनना भी नही चाहता,
बस पागल की तरह बैठा हूँ
देख रहा हूँ।
अपने विलुप्त होने का
अपने शून्य हो जाने का दृश्य
पीड़ा भी होती है,
और हसी भी आती है।
शर्म नही आती बस,
क्योंकि शर्म आती तो, खामखां,
ऐसा कभी होता ही नही।


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