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दो प्रकाश 🌕🔥
गंगा के इस पावन तट पर,
दिखते मुझको दो दो प्रकाश ।
एक प्रज्वलित हो रहा धरा पर,
दूजे का अनंत आकाश।
दोनो लगते मोहक मन को,
अंतर बस प्राणी का है।
व्याख्या है किसकी कैसी,
अंतर बस कहानी का है।
गंगा की चंचल धारा में,
दोनो प्रतिविंबित होते हैं।
दोनो में एक दूरी है,
प्रमुदित दोनो दुख ढोते हैं।
जैसे जैसे बढ़ता आगे,
एक दूर भागता जाता है।
हंस हंस कर परिचित ध्वनि में,
दूजा मुझे बुलाता है।
अहो चमक , ये सुंदरता ,
भयभीत प्रथम है छाया से।
जीवन की असीम कालिमा,
दूसरा लिए समाया है।
विचरण करते जितने तट पर,
रखते आस गगन की हैं।
पर नीचे की उष्मित आभा,
ही बस उनको मिलती है।
एक खिलौना है बचपन का,
दूजे के समक्ष मैं माटी हूं।
जीवन के इस पार एक ,
जीवन के उस पार एक,
कहें दोनो मैं तेरा साथी हूं।
सुने व्यथा और सुंदरता के,
किस्से तेरे बड़े पुरातन है।
शाश्वत तू शीतल और लांछित,
दूजा सत्य सनातन है।
भ्रमित बुद्धि में और चेतन में,
अब फूट पड़ी लो ज्वाल सघन।
सेंक सेंक तन को प्रकाश से,
आनंदित होता है मन।
बना सामग्री चंचन मन को,
हवन करूं दूं आहूति।
दूजे को देख विचलित होकर,
चीखें मारें स्मृति छूटी ।
दोनो से हुआ नही परिचय,
ना ही दोनो से नाता है ।
यह बस नीचे वाला जाने,
क्यों मुझको इतना भाता है।
रुक रुक जाते मेरे कदम सफर पे ,
नीचे गंगा ऊपर आकाश ।
कवि का मन नीचे जा पहुंचा,
दिखते मुझको दो दो प्रकाश।
🌕🔥
ध्रुव

© हरिदास