...

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अखरते रहे
साल-दर-साल यूं ही गुज़रते रहे,
ज़िन्दा रहने का हम सोग करते रहे,
कैसा ना जाने कर्मों का इक क़र्ज़ था,
सूद नाकामियों का ही भरते रहे ,
अरमां हरजाई थे, ख़्वाब थे बेवफा,
दोसतों की...