...

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जवाब तो तब भी थे
श्रम से चुकाया मूल सूद अपमान से,
बाकी कुछ बचा है क्या? बोलना ईमान से।
कीमत है खाखों-सी इज्जत की लाखों में,
ज्यादा ही मेकअप है मुंतशिर निशान से ।

इज्जत के वेंडर की इज्जत भी होती क्या!
ऐसा ही सोचते हो! है ना दोस्त नाम से ?
पैसे कमाता है वेंडर तो शिद्दत क्या ;
हो फरोख्त रिश्ते न, रोजी कहां खान से ?

खाक में न सोचना शै इश्तहार आलम का,
मान ले वो कातिल व बुजदिल आराम से;
मैं तो हूं बेफिक्र साहिल इक मंजिल का,
कीमत क्या किसकी है सोच इत्मिनान से।



© शैलेंद्र मिश्र 'शाश्वत' २१/०५/२०१२