...

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सफ़र
बहुत सुनना चाहा तुम्हे
लेकिन हर मर्तबा
तुम्हारी ख़ामोशी को सुना
ख़ामोशी पसंद तो मैं भी था
लेकिन ज़ब खामोशियाँ जेहन
में चीखने लगी तो
ग़ज़ल का शक्ल इख़्तियार कर लीं
ये बताओ आख़री बार कब तुमने
खुद की आँखों में झांका था
अगर झाकती तो बुझती सूरत दिखती
तुम तो बुलंदी परस्त थी
हवावों को गले लगाया
मेरे हिस्से में वही सुर्ख दरख़्त के
पत्ते आ गिरे
अब डर है कहीं कोई अंधी ना चल पड़े
मुझे सहेजने की आदत थी
मैंने बूढ़े दरख़्त के पतों को
सहेज़ के रखा है
और सहेजा है अपने मरे जज़्बातों को
जो कभी हकीकत का शक्ल ना ले सके
अब इन बीती बातों पर क्या
आहे भरना
चलो कही एक कप चाय पीते हैं
और बाते करते हैं
चाय में घुली चाय की पतियों पर
जो चाय के साथा खुद को
उबाल दिया और चाय को
इक नयी ख़ुशबु और शक्ल में
ढाल दिया
जैसे तुम्हारी पहली मुलाक़ातों ने
मुझे मुझसा न रहने दिया
ढाल दिया कलम के एक
मुसाफिर के रूप में
जो दिल के वरक पर
जज़्बात, आंसू, याद और
आहों की स्याहीयां
छिटकाता है,
तुम मेरी बुझे ख्यालों की
पूरी किताब हो जिसे मैं
पढ़ता हूँ और
फिर निकल पड़ता हूँ
किसी अनजान सफर पर
जहाँ सारी तलाश रुकी होती हैं
कुछ रास्ते होते हैं और मेरे
क़दमों की आवाज़ होती है
जो बार बार याद दिलाती हैं
की मैं एक मुसाफिर हूँ,
और चलना मेरा अंतिम उद्देश्य है।

✍️रणविजय "मंटू"
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