...

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#प्राकृतिकसुषमा #कवि
सुबह की तरोताजा
प्रसन्न हवा उनमुक्त होकर बह रही ।

ताजा ताजा खिले पुष्प भी
इतरा इतरा कर गंध घोलते हवामें ।

नयी नयी कोपलें पौधों पर
मंद मंद मुस्कुराकर हँस रही ।

मुरझाये हूए पौधे भी
त्यागकर आलस्य तनकर है खडें ।

रातभर की बंध खिड़कियाँ
मुर्छा त्यागकर सजीव हो उठी ।

थमी थमी सी चहल पहल अब
शायद ! वाचालता में बदल रही ।

भोर की लालिमा कुछ तिव्र
होती हूई स्वर्णिम किरणोंमें धुल मिल रही ।

यायावर पंछी छोड़ घोंसले
चुगने को निकल पडे पेट संभाल ।

रातभर दीदार को तरसती आँखे
किसी की खिडकियों पर बिछ गई ।

जिम्मेदारीयां जिनको सोने नहीं देती-
- बेचारे मारे मारे ओफिस को निकल पडे ।

रोजगारी की खोज में बेरोजगार भी
कौओं की तरह अखबार फिंच रहे ।

बस ! मस्तमौला फकीरनूमा कवि भूलाकर
अभावों को प्राकृतिक सुषमा का लुफ्त उठा रहा !!

© Bharat Tadvi