...

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अफ़सोस नहीं....
अफ़सोस क्या करें उसका जो घड़ी चली गई
जाने दो उसे भला कौन सी जिंदगी चली गई...

दिल में जो आ जाए मैं उसे कर ही डालता हूं
ताकि अफसोस न रहे जिंदगी यूं ही चली गई...

खुशी ने मुसलसल खटखटाए थे दरवाजे मेरे
मैं ही उसे तवज्जो न दे सका सो वो चली गई...

जिंदगी बता मैं क्यूँ तेरी मेहमान नवाजी करूं
क्या पता कब तक है फ़िर यकायक चली गई...

तेरा साथ रहा अँधेरे में एक रोशनी के मानिंद
शब भर चली जो लौ सुबह होते ही चली गई...

हम तो रोक लेते थे आवाज देकर भी तुझको
फिर किसी को बताते कैसे वो कैसे चली गई...

हम जब सुनाएंगे तेरे किस्से किसी को कभी
ये हर्गिज़ न बतायेंगे कि आख़िर में चली गई..

देखना हम फ़िर बना लेंगे नए मुकाम अपने
तुझसे कभी ना कहेंगे, कि तू क्यों चली गई...
© Naveen Saraswat