...

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शायद मैं पार न कर पाऊं।
कुछ भी नहीं है यहां,
किसी के ख्याल ए दौर हम।

सब धुआं धुआं सा दिखता है,
फिर दिल में एक टीस उठती है,
आंखों में नमी पिघलती है,
यार की याद नकाबपोश
सा आकर समाने आता है,
फिर किसी की शख्तियत
धुंधला कर मुझे अपने प्रेम मोह
में बांध कर आकार दे जाता है।
फिर वही रिश्तों का बंधन
और संसार का उलाहना दे जाता है।
उलझ रहा हूं या सुलझ रहा हूं,
अजब-गजब तिलिस्मी दुनिया है तेरी,
माया तेरी अपरम्पार है
शायद मैं पार कभी न पाऊं।
© Sunita barnwal