...

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पिंजड़ा

उड़ना चाहूँ स्वच्छंद आकाश में, चाहकर भी उड़ नहीं पाती हूँ,
दकियानूसी के पिंजड़े में बंद, अपने पंखों को फड़फड़ाती हूँ।

सदियों से जो चलता आया, आज भी वही निभाया जाता है,
बहू बेटियों को बंदिशों के पिंजड़े में, बंधक बनाया जाता है।
आज भी बहू बेटियों के संग, समाजिक बंधनों की लाचारी है,
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की, औपचारिकता निभाया जाता है।

घर, परिवार और समाज के बंधनों को, मैं खोल नहीं पाती हूँ,
दकियानूसी के पिंजड़े में बंद, अपने पंखों को फड़फड़ाती हूँ।

देश आज़ाद हुआ मेरा, पर बेटियाँ कब आज़ाद हो पाएँगी,
इक्कीसवीं सदी में भी बेटियाँ, क्या घूट घूट कर मर जाएँगी।
दम घुटता है इन बहू बेटियों का, चाहे पिंजड़ा हो सोने का,
स्वतंत्र करके देख ले बेटियों को, ये जग में नाम कमाएँगी।

अपने सारे सपनों को दिल में ही, स्वयं दफ़न कर जाती हूँ,
दकियानूसी के पिंजड़े में बंद, अपने पंखों को फड़फड़ाती हूँ।

© 🙏🌹 मधुकर 🌹🙏