...

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एक उम्मीद
कि मात पे मात राहों पर हम खाएँ जा रहें है,
इन मुश्किलों को आसाँ हम बताएँ जा रहें है।

कोई भी कसर ना छोड़ी क़िस्मत ने रुलाने में,
फ़िर भी हर हालात में हम मुस्कुराएँ जा रहें है।

अपनों ने ही ठगा है मुझे क़दम क़दम पे यहाँ,
अपनों के दिए गमों को हम भुलाएँ जा रहें है।

जितना भी मिला उसमें खुश रहना सीख लिया,
एक उम्मीद के सहारे ख़ुद को चलाएँ जा रहें है।

किसी से कोई भी गिला शिकवा नहीं रखते हम,
अपनी समझ को हर रोज़ हम बढ़ाएँ जा रहें है।

औरों से बेहतर दिखाना ना आया मुझे "खराज"
ख़ुद को कल से और बेहतर हम बनाएँ जा रहें है।

© पुखराज