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मजबूरी
वो सर्द भीगी रात में
गुब्बारे बेचने निकला था
ठिठुरती आवाज़ से पुकारता
काँपते हाड़ों को संभालता
कोई मजबूरी खींच लाई होगी उसे
उसकी आँखो से छलकती उम्मीदें सी थी
उम्मीद सड़क के उस पार राह देखते
अपने बच्चों के लिए निवाले की...
आखिर वो एक पिता जो था......
गर्ग साहिबा
गुब्बारे बेचने निकला था
ठिठुरती आवाज़ से पुकारता
काँपते हाड़ों को संभालता
कोई मजबूरी खींच लाई होगी उसे
उसकी आँखो से छलकती उम्मीदें सी थी
उम्मीद सड़क के उस पार राह देखते
अपने बच्चों के लिए निवाले की...
आखिर वो एक पिता जो था......
गर्ग साहिबा
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