...

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एक दिन तुम्हारे बिना
एक दिन तुम्हारे बिना,
मेरी जो ये दिन से रात हुई है।
पूछना मत बिल्कुल कि क्या क्या बात हुयी है,
शोर और सन्नाटों ने भी अपनी मंजिल पकड़ ली..
और सुनो तो कि ये ख्यालों की भी क्या औकात हुयी है।।

न दिन में सूरज से आंखे भजने दी।
हो जाने पर अंधेरा न ही रोशनी करने दी।
उलझा के रखा पूरे दिन अपनी ऊटपटांग बातों में,
तुम्हारे इंतजार में न हुआ एक भी ढंग का काम,
और न ही रस्ते से आँख हटने दी।

तुम न आए पर शाम वक्त पर आ गयी,
सूरज डूबा, आकाश में लालिमा छा गयी।
तुम्हारे इंतज़ार में आँखों का जो हाल हुआ है,
पक्षी भी लौट गए अपने कुनबे को..
पर तुम्हारे न आने पर जो सवाल हुआ है।।

चाँद भी आया और तारें उसके साथ थे,
कैसे करूँ बयां मैं सब कुछ?
दिन से रात के सफ़र में मेरे जो हालात थे।
अब बीत गया दिन तो मसला ही क्या है,
ये ख्याल ही अच्छे हैं,
कम से कम दिन भर ये तो मेरे साथ थे।।

Vaishnavi Singh
© Vaishnavi Singh


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