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ग़ज़ल
चन्द अशआर ~
अपनी तक़दीर से उलझता हूं।
जिगर की पीर से उलझता हूं।
कैद है रूह मेरी कबसे यहां,
तन की जंजीर से उलझता हूं।
तू जो मिलता नहीं तो मैं अक्सर,
तेरी तस्वीर से उलझता हूं।
चारागर ने दवा ये कैसी दी,
उसकी तासीर से उलझता हूं।
कुछ भी छोड़ा नहीं है कहने को
ग़ालिब ओ मीर से उलझता हूं।
रात को ख़्वाब देखता हूं नया
दिन में ताबीर से उलझता हूं।
कितने अहसास उबलते दिल में,
मैं कि तहरीर से उलझता हूं।
© इन्दु
अपनी तक़दीर से उलझता हूं।
जिगर की पीर से उलझता हूं।
कैद है रूह मेरी कबसे यहां,
तन की जंजीर से उलझता हूं।
तू जो मिलता नहीं तो मैं अक्सर,
तेरी तस्वीर से उलझता हूं।
चारागर ने दवा ये कैसी दी,
उसकी तासीर से उलझता हूं।
कुछ भी छोड़ा नहीं है कहने को
ग़ालिब ओ मीर से उलझता हूं।
रात को ख़्वाब देखता हूं नया
दिन में ताबीर से उलझता हूं।
कितने अहसास उबलते दिल में,
मैं कि तहरीर से उलझता हूं।
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