...

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बढ़े थे जो कदम...
कदम तो सबने रखे अपने
कुछ ठहर से गए इधर
कुछ बना लिए पकड़ इस मंच पर
कुछ ईद का चांद बने
कुछ बढ़कर आगे
फिर वापिस हो चले
कुछ चलते हुए राह भुला दिए
कुछ चलना छोड़ चुके
कला और क्षमता दोनों ही थी
लिखने की, पढ़ने की ,
और प्रोत्साह का चालन करने की
क्या बात हुई होगी ? वो
सज्जन अब दिखते नहीं
उनके शब्दो के सार
मुझे यहां दुबरा से मिलते नहीं
शायद व्यस्त होंगे दिन और रात
पर मायूस नहीं हुए होगें
ज़िंदगी तू बन सखी उनकी
थोड़ा सा उपकार तू कर
ना कर जुल्म उनपर हर बार
कलम की असीम ताकत उन्हें
तू भेंट कर ताकि प्रकाश वह
अपनी कहीं न कहीं फैलाते रहें
यहां नहीं तो सही उस पार।