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दहेज का दावानल
दीप जले मन का, तो क्यों लेगा कोई दहेज ? कांता-क्रंदन सुन सबका उठेगा दिल पसीज। लेने-देने वाले दानों द्रोही हैं यह धन। मनुज से मनुज का खरीदा जाना ही है दहेज
हे मनुज। ललना ही तो अतुल संपदा है गृह की। क्या धन के लालच से पागल बन, तू अपने ही, पैरों पर बुद्ध बन, मारता है कुल्हाडी ? दहेज में दावानल छिपा है, आँखें खोलो जी।
औरतें अनेकों अब भी शिकार बनती हैं इस दावानल का। अपने को प्रबुद्ध मानते, अब भी न बुद्ध बनो तुम, भँवर में डूबती कंचन-सम कन्याओं का रक्षक बनना। जीवन में अपने को मानवता के सबल पोषक कहलाना।
© Kushi2212