...

18 views

चलों आज कूछ नया शीखते हैं |
उन बेहती हुयी नदिओं से कुछ शिखा हैं मैंने,
की कैसे वो विशाल काय पर्वत को चीरती हुई,
सारी मुस्किलिओ को पार करती हुई,
लोगों के लिए आती हैं |

उस आकाश से मैंने ये शिखा की,
कैसे वो हर सुबह शाम,
एक नयी बादलों और रंगों की रंगोली को अपनाकर,
एक नये दिन या रात को अपनाता हैं |

उस धरती माँ से भी ये शिखा की,
कैसे वो अपने ही सीने पे,
हल चलाने वाले को भी खुद की पीड़ा को भुलाकर,
अनाज देती हैं |

उस समंदर को देखा तो शिखा की,
कैसे वो सारे तूफानों को सहकर भी,
अपने भीतर पल रहे उन जीवो को बचाया,
जो उसे अपना घर मानते हैं |

उन पर्वतो से शिखा की कैसे,
वो इतनी ऊंचाई पे रहकर भी,
उस आसमान को छूने का,
घमंड नहीं करते |