...

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पता नहीं..
पता नहीं मुझे कि,
मैंने कोई गुनाह किया है,,
शुष्क होठों पर,
घुली मुस्कान की कोई परवाह किया है।।
मालूम नहीं तुम इतना बेरुखी सी,
क्यों नजर आ रही हो!,
अपनी गलतफहमी पर पर्दा गिरा रही हो।।
आपकी नजरों का क्या गजब दस्तूर है,
अरमानों को कुतर के चले जाना,
क्या आपका फितूर है!।।
नहीं जानता कि,
इतनी नफरत तुम क्यों पाल रही हो?,
शायद!अपनी खुशियों को मेरे दामन में डाल रही हो।।
क्या हासिल होता है तुझे मेरे जख्मों को हरा करके,
यकीनन मेरे लिए अश्क तूं भी बहाती है कहीं जा करके।।
लगता है अपने मकसद में कामयाब आप रही हैं!,
झूठ हो या सही पर,
मेरे ख्वाबों का नायाब आप रही हैं।।
written by (संतोष वर्मा)
आजमगढ़ वाले..खुद की ज़ुबानी..