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औरत हूँ मान चाहती हूँ....
औरत हूँ मान चाहती हूँ , अपने हक का अभिमान चाहती हूँ ||

कितने ही दर्द छिपाये अंतर्मन में,
हर आँसू पी लेती हूँ||
सभी ज़ख़्मों को सी लेती हूँ,
दोनों दहलीजों की लाज निभाती हूँ||

सिंदूर बिंदिया महावर पर सर्वस्व समर्पित करती है|
सिर्फ जिस्म नहीं एक जान भी होती है
औरत आखिर एक इंसान भी होती है||

कहती नहीं कुछ पर हर रोज खुद को समझाती हूँ||
डगमगाये न कदम कभी , इसीलिए हर रोज खुद को सम्हालती हूँ ||

औरत हूँ मान चाहती हूँ ,अपने हक का अभिमान चाहती हूँ ||

कितने ही अन्दिखे बंधनों में बांध दिया तुमने नारी को,
घर की लाज रखे औरत, मर्यादा की रेखा खींची ||

पुरुष को क्यूँ फिर स्वतंत्र छोड़ दिया,
क्यूँ नहीं खीची कोई लक्ष्मण रेखा ,
क्यूँ नहीं तय किया कोई पैमाना ,
सही, गलत, मान-मर्यादा, मान-सम्मान
क्यूँ नहीं कोई दहलीज पुरुषों की ||

सर्वस्व समर्पित करती हूँ,
माँ, बेटी ,बहन, पत्नी हर रूप में पुरुष को पालती हूं ||
फिर क्यूँ नहीं अभिमान करूँ , तुम न करो मैं खुद का सम्मान करूँ ||

औरत हूँ मान चाहती हूँ,
अपने हक का अभिमान चाहती हूँ....
© Seema Chauhan