...

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औरत हूँ मान चाहती हूँ....
औरत हूँ मान चाहती हूँ , अपने हक का अभिमान चाहती हूँ ||

कितने ही दर्द छिपाये अंतर्मन में,
हर आँसू पी लेती हूँ||
सभी ज़ख़्मों को सी लेती हूँ,
दोनों दहलीजों की लाज निभाती हूँ||

सिंदूर बिंदिया महावर पर सर्वस्व समर्पित करती है|
सिर्फ जिस्म नहीं एक जान भी होती है
औरत आखिर एक इंसान भी होती है||

कहती नहीं कुछ पर हर रोज खुद को समझाती हूँ||
डगमगाये न कदम कभी , इसीलिए हर रोज...