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ज़हन बांधे ख़्वाबों के पुल
पांव अपने जमीं पे रहते,
ज़हन बांधे ख़्वाबों के पुल,
ज़ीस्त की नदी में बेसुध बहते,
पंछी पंख फैलाने को आकुल।
सोच के सागर में डूबे हम,
काम धाम सब होगा कल,
दफ़्तर करता नाक में दम,
मन की दुनिया में घूमें चल।
हम उड़ें बादलों के ऊपर,
उड़ती मछली से हो बातें,
हो अपना भी चांद पे घर,
चमकीली हों अपनी रातें।
हम सैर करें खलाओं की,
सितारों से हो अपना मिलना,
बस उड़ती रहे अपनी कश्ती,
हो मंगल पे भी थोड़ा चलना।
इस धूल भरी दुनिया में,
कुछ पल खयालों में भी काटें,
ये रोज़ रोज़ की छिक छिक में,
कुछ मज़ेदार खयाली पुलाव बांटें।
© Musafir
ज़हन बांधे ख़्वाबों के पुल,
ज़ीस्त की नदी में बेसुध बहते,
पंछी पंख फैलाने को आकुल।
सोच के सागर में डूबे हम,
काम धाम सब होगा कल,
दफ़्तर करता नाक में दम,
मन की दुनिया में घूमें चल।
हम उड़ें बादलों के ऊपर,
उड़ती मछली से हो बातें,
हो अपना भी चांद पे घर,
चमकीली हों अपनी रातें।
हम सैर करें खलाओं की,
सितारों से हो अपना मिलना,
बस उड़ती रहे अपनी कश्ती,
हो मंगल पे भी थोड़ा चलना।
इस धूल भरी दुनिया में,
कुछ पल खयालों में भी काटें,
ये रोज़ रोज़ की छिक छिक में,
कुछ मज़ेदार खयाली पुलाव बांटें।
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