...

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वो खुश्बू, यादें और आधे रास्ते!
आज फिर नदी किनारे इस पुराने बैंच के
कंधे पर हाथ रखकर,
खड़ा हूं, न जाने किन आते- जाते ख्यालों और
यादों से अटा पड़ा हूं,
अरसा हुआ देखें उन्हें, अरसा हुआ मुलाकात हुए,
मगर लगता है,
यही कहीं हो, साथ बैठे हो, शरारतें करते,
मुस्कुराते हुए,
या यूं कहें कि पूरी फिज़ा में घुले हुए से हो, इक
महकती खुश्बू से,
लगता है अभी के अभी चहकोगे वृक्ष के या
किवाड़ के पीछे से!

वो छोटी सी गिलहरी जो ज़र्र से वृक्ष से उतर
आती थी तुम्हें देखकर,
अरसा हुआ वो भी नहीं उतरी नीचे मुझे अकेला देखकर, उदास है शायद,
उसे भी लग जाता है धोखा कभी कभी, नहीं-नहीं, अक्सर.., शायद तुम्हारी खुश्बू से,
तभी तो उतर आती है आधे तने तक किंतु जाने क्यों लौट जाती है फिर,
बिल्कुल मेरी तरह, मैं भी तो, पहुंचता तो हूं इस बैंच तक लेकिन बैठता नहीं,
लौट जाता हूं कभी-कभी आधे रास्ते से, न जाने क्या सोचकर,
ये आधे रास्ते भी कितने खराब होते हैं, जाने क्यों भूलाए जाते ही नहीं,
जाने क्यों लोग चलते हैं साथ आधे रास्ते तक और फिर चल देतें है दूसरी राह?!
उफ़, ये आधे रास्ते, ये खुश्बुएं और नश्तरों की तरह दिलों दिमाग में चुभती यादें!!!

—Vijay Kumar
© Truly Chambyal