...

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कविताएँ...! भी मुझ जैसी हैं
सुनो... इन कविताओं की
कोई उम्र नहीं होती
न ही बँधती हैं ये
छंद और सोरठा के बंधनों में।

कविताएँ... चिर् आयु...
उम्र से परे
एक स्वतंत्र सा ख़्याल हैं
जो बँधती हैं सिर्फ़ लेखनी की जिव्हा पर
मंत्र मुग्ध...रमणीयता का
स्वाद चखने के लिए।

नई कविताएँ पाँव के छल्लों और
हँसुली जैसे गहनों के
भारी-भरकम अलंकरण को
भी पसंद नहीं करतीं...

वे तो बस...कुछ गूढ़ रहस्यों
के विस्मय से ही स्वयं को
संवार लिया करती हैं।

हाँ... कविताएं, आज की स्त्री जैसी हैं
कुछ कुछ.. मुझ जैसी...
जो बिना आवाज़ किए

अपने कार्य और उद्देश्य में
कर लेना चाहती हैं
हासिल दक्षता...
"हाँ... कविताएँ भी मुझ जैसी हैं"