...

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मज़बूर/मज़दूर
कोई अपनों को खो रहा,
किसी का बह रहा खून है,
कोई भूखे पेट सो रहा,
कहाँ किसी को सुकून है।

किसी के पैरों में छाले,
किसी के माथे पर पसीना,
जिसकी ईमारत को सींचा,
उसी ने रोटी कपड़ा मकान छीना।।

कोई बूढ़े बाप को ढोया,
कोई बच्चों के संग भूखे सोया,
किसी ने पीड़ा से जान गवाईं,
कोई बीच सड़क पर बिलख बिलख के रोया।।

कोई गैरों में अपनों को ढूंढता,
किसी ने अपनों में गैर पाया,
हाय बेबस जिंदगी ने,
ये कैसा दिन दिखाया।।


दाने दाने को तरसाया उस जमीं ने,
जिसको इन्होंने खून से सींचा था,
पराया समझकर बेघर किया उसको,
जिनसे हर सुबह मुश्कुराता बगीचा था।।

एक पाँव पर घिसट घिसट कर भी,
अपनी मातृभूमि को गले लगाया,
मीलों पैदल चलकर भी अब सुकून है,
हे कर्मभूमि तूने कितना सताया।।

अब तो ना गैरों से कोई उम्मीद है,
ना कोई गुलामी का एहसास है,
उठ खड़े हो जाएंगे फिर से,
अपनी माटी के जो हम पास हैं।।


क्या हुकूमत ने किया,
जो आज वो कुछ करेगी,
ये तो किश्मत है हमारी,
मेहनत के दम पर सबकुछ करेगी।।


लौट के बढ़े कदम जो,
आने का ना अब नाम लेंगे,
अपनी मिट्टी से जो मिलेगा,
उसी से जीने का काम लेंगे।।


सच कहतें हैं दुनियां वाले,
आखिर माँ तो माँ होती है,
सुबह का भुला शाम को आये,
तो गले लगाकर खुशी से रोती है।।