वेदना
हे पार्थ !
तिमिर अंधकारमय रजनी के साथ
कौन-सी वेदना से तुम बहे जाते हो?
क्रंदन से बने, तुम्हारे आंसुओ से रचे समुद्र में ?
तुम्हारी लालिमय आँखों में
मूल्यवान मोती से प्रतीत होते हैं यह,
हो तुम, किस वेदना के अश्रु समुद्र में ?
डूबते जाते हो अपने जीवन को साथ ले सूर्यास्त के साथ पश्चिम मे।
डर लगता है मुझे
उन सब भावी बातो से जो नियति ने रच रखी है खास,
ऐसा लगता है धक्का देने खड़ा कर रखा हों मुझे ऊंचे विशालकाय पर्वत कि चोटी के पास
अपनी इस असीम वेदना से प्रताडित करता हूं मे स्वयं के जीवन का उपहास
लेकिन
कालजयी ध्वनि से करता हुआ अट्टहास
मेरा भाग्य फिर खड़ा होता है एक गंभीर वेदना के पास
घेर लेती है मुझे
चारों और से बेबसी, पीड़ा, दुखदायक लाचारी की बाढ़ ,लेकिन दूसरे ही पल
मुझ में बसे राम का हृदय भीड़ जाता मन में बसे असंख्य सिरो वाले रावण के साथ
मन चाहता है कि
तुम्हारी समस्त वेदनाओं को
रोक दूँ
अपने तूणीर के एक बाण से तुम्हारा सारा संताप सोंख लू।
कामदेव बनू तुम्हारे चेहरे कि वो हसीं वापस ला दू इसी क्षण तुम्हारे पास
हे पार्थ!
शाम के इस अंधकारमय वातावरण मे
आँखों से बहती नीर की धारा और होठों पर एक मौन चीख़ बनकर
रूकी हुई
तुम्हारी घनीभूत वेदना से आज हूं में भी परास्त।
मै मनुष्य हूँ, झेल नहीं पाऊँगा
बल्कि परवश जीता जाऊँगा तुम्हारी व्यथाओं की अथाह गहराई के साथ।।
"पार्थ"
© PARTH
तिमिर अंधकारमय रजनी के साथ
कौन-सी वेदना से तुम बहे जाते हो?
क्रंदन से बने, तुम्हारे आंसुओ से रचे समुद्र में ?
तुम्हारी लालिमय आँखों में
मूल्यवान मोती से प्रतीत होते हैं यह,
हो तुम, किस वेदना के अश्रु समुद्र में ?
डूबते जाते हो अपने जीवन को साथ ले सूर्यास्त के साथ पश्चिम मे।
डर लगता है मुझे
उन सब भावी बातो से जो नियति ने रच रखी है खास,
ऐसा लगता है धक्का देने खड़ा कर रखा हों मुझे ऊंचे विशालकाय पर्वत कि चोटी के पास
अपनी इस असीम वेदना से प्रताडित करता हूं मे स्वयं के जीवन का उपहास
लेकिन
कालजयी ध्वनि से करता हुआ अट्टहास
मेरा भाग्य फिर खड़ा होता है एक गंभीर वेदना के पास
घेर लेती है मुझे
चारों और से बेबसी, पीड़ा, दुखदायक लाचारी की बाढ़ ,लेकिन दूसरे ही पल
मुझ में बसे राम का हृदय भीड़ जाता मन में बसे असंख्य सिरो वाले रावण के साथ
मन चाहता है कि
तुम्हारी समस्त वेदनाओं को
रोक दूँ
अपने तूणीर के एक बाण से तुम्हारा सारा संताप सोंख लू।
कामदेव बनू तुम्हारे चेहरे कि वो हसीं वापस ला दू इसी क्षण तुम्हारे पास
हे पार्थ!
शाम के इस अंधकारमय वातावरण मे
आँखों से बहती नीर की धारा और होठों पर एक मौन चीख़ बनकर
रूकी हुई
तुम्हारी घनीभूत वेदना से आज हूं में भी परास्त।
मै मनुष्य हूँ, झेल नहीं पाऊँगा
बल्कि परवश जीता जाऊँगा तुम्हारी व्यथाओं की अथाह गहराई के साथ।।
"पार्थ"
© PARTH
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