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"मैं और क़लम..." ✍️✍️✍️
"कभी मोहब्बत को पिरोते शब्दों की माला में,
कभी नफ़रत को भी काग़ज़ पर हम गढ़ते हैं ।

बयाँ हाल दिल के सारे हो जाते हैं पल में ही,
जब मैं और क़लम यक-ब-यक कहीं मिलते हैं ।।

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उमड़ता है जब सैलाब भावों का अन्तस् में,
उथल-पुथल करते भीतर ही जज़्बात मेरे हैं,

तो मेहरबानी कर जाती है स्याही मुझ पर...
फिर मैं और क़लम मिल सारे हालात लिखते हैं ।।

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ज़िन्दगी के कारनामों से आकर आज़िज़...
ख़्वाहिशें ढूंढ़ रहीं थी कोई शज़र सुकूँ भरा...

कि- काग़ज़ बन मिला ठिकाना हमारे सफ़र में,
अब मैं और क़लम हर राह पर संग चलते हैं ।।

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बन चली है कुछ यूँ हमराह ये क़लम मेरी,
शुक़राना कैसे ही अता करे उसका ये "शाश्वत"

कि- तन्हाईयाँ जलकर राख़ हुईं अब तो सारी ही,
जब से मैं और क़लम संग सँवरते हैं ।।"
✍️- © Vishaal "Shashwat..."