...

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जीवन
परिपक्वता से भले भरा अंजुल
अबोध फिर भी बैठा बंधु
कवायदो मे होकर मसरूफ
मगरूर सी है सभ्यता अब
दलील देता हर- क्षण जहां
हो बधिर पर बैठा जन- मन
आचरण का खोखला दंभ
है जकड़ता विकास के 'पर'
मना रहा शुक्र गुजरा वो पल
सुकून में था समीर का वन
टोका टोकी के देगचा में
पक रहा है आज जीवन।

© Shreya

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