...

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सम्मेलन वाली कुर्सी..
आज कुछ नया किया,
कुछ अलग था पर बुरा नहीं लगा,
सम्मेलन बोलने का था,
जिसको देखो एक से बढ़ कर एक बोल रहा था,
और हम बैठे थे अपनी कुर्सी पर,
अच्छे से गोंद लगा कर,
कुर्सी ना छोड़ी हमने,
ना निकले शब्द मुँह से,
सम्मेलन से निकल आये,
पर बोले ना वहां किसी से,
कभी-कभी ये आवाज़ निकलने से मना कर देती है,
जैेसे निकल जाए तो जान ही चली जाए,
वैेसे ऐसा कुछ होता नहीं है,
पर हमारे होंठ आपस में चिपक जाते हैं,
जैसे दो प्रेमी चाह कर भी एक...