...

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चाँद की शरगोशियाँ
चाँद की शरगोशियाँ न जाने होले से क्या कह गई ,
चलने लगी थी घर को में ,
बस शब भर वहीं ठहर गई जो देखा नूर चाँद का नज़र फिर वहींअटक गई ,
में और वो एकदूजे में शादमा थे ,
हम कहाँ होशोहवास में थे बस नज़र के नज़रों से वार
थे ,
चाँद था , शबेरात थी , में
थी और हरसू खामोशी अपने पूरे शबाब पर थी ।।

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