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ग़ज़ल 221/1221/1221/122
मिसरा ए तरह - अपनी भी ख़्मोशी में सदा और ही कुछ है (नज़ीर अकबराबादी ✍️)

बा रंग मुहब्बत की सज़ा और ही कुछ है,
सहरा में परिन्दे की सदा और ही कुछ है ।

कितना ही बड़ा लाख सुख़नवर हो ज़माँ का, अपनी भी ख़्मोशी में सदा और ही कुछ है ।

हमसे न उठा बार दिल ए हाय का रोना,
उल्फ़त के सिवा दिल को मिला और ही कुछ है ।

इक उम्र किया कुछ न सिवा हमने वफ़ा के,
समझे थे वफ़ा कुछ कि वफ़ा और ही कुछ है।

वैसे तो जला घर है मिरा सबकी नज़र में,
पर साथ में इस घर के जला और ही कुछ है ।

इक उम्र बिता दी है परस्तिश में बुतों की,
जाना है ख़ुदा और, ख़ुदा और ही कुछ है ।

© ishqallahabadi🖋