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ग़ज़ल 221/1221/1221/122
मिसरा ए तरह - अपनी भी ख़्मोशी में सदा और ही कुछ है (नज़ीर अकबराबादी ✍️)

बा रंग मुहब्बत की सज़ा और ही कुछ है,
सहरा में परिन्दे की सदा और ही कुछ है ।

कितना ही बड़ा लाख सुख़नवर हो ज़माँ का, अपनी...