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आख़री साँसे
आख़री साँसे

आख़री साँसों मैं एक दर्द सा देखा है,
पुरानी यादो को सटकते देखा है,
संभाल के रखे थे जो लम्हे हमने,
उन्हें हक़ीक़त में बदलते देखा है !

क्या किसी ने चाँद को ज़मीन पे उतरते देखा है,
क्या किसी ने पानी को आग पकड़ते देखा है,
मेरा चाँद तो आसमान में गया ही नहीं,
मैंने खूनेज़िगर को भी आग पकड़ते देखा है !

लोग यूँ ही मज़ाक उड़ाते है किसी की मुहब्बत का,
हमने उनको भी किसीका दामन थामते देखा है,
कोई कह दे उनसे कि हम पत्थर दिल नहीं सनम,
मुहब्बत में पत्थर दिलो को भी शीशे में बदलते देखा है !

राकेश जैकब "रवि"