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अधर की ख़्वाहिशें
अधर में है लटका,
जिंदगानी से खा झटका।
अधूरी ख़्वाहिशें,
बेमुरव्वत जहान की साज़िशें।
था जिंदा कब मरा?
नाम को था जहान सारा।
अपनत्व को तरसा,
अश्रु,बतायें कैसे सावन बरसा?
नितांत रहा अकेला,
चहुँ तरफ़ था गज़ब मेला।
वो अधर को देखता,
यादों के हिंडोले में रहा झूलता।
इंसान का बच्चा,
बहुत ही था वो मगर सच्चा।
तभी तो रहा मर,
जीवन चक्की के बीच आ,कर।
© Navneet Gill
जिंदगानी से खा झटका।
अधूरी ख़्वाहिशें,
बेमुरव्वत जहान की साज़िशें।
था जिंदा कब मरा?
नाम को था जहान सारा।
अपनत्व को तरसा,
अश्रु,बतायें कैसे सावन बरसा?
नितांत रहा अकेला,
चहुँ तरफ़ था गज़ब मेला।
वो अधर को देखता,
यादों के हिंडोले में रहा झूलता।
इंसान का बच्चा,
बहुत ही था वो मगर सच्चा।
तभी तो रहा मर,
जीवन चक्की के बीच आ,कर।
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