...

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तुम्हें लिखना चाहा.....
मैंने जितनी बार तुम्हें लिखना चाहा,
धँस गया मैं शब्दों के दलदल में
सोचता हूं कभी पन्नों पर उतार लूँ उन्हें,
उनके मुँह से निकले सारे आकांक्षाओं को पूरा कर दूँ अभी

ऐसी क्या मजबूरी रही होगी उनकी, जो वो रात- रात भर जागते हैं,
मुझे दो वक़्त की रोटी देने के लिए वो कई दिन घर भी ना आते हैं
भले ही गुस्से में कभी-कभी डांट देते हैं मुझे,
कभी अपने प्यार...