...

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ग़म - ए - दिल
ज़माने भर का गम ख़ुद में ही अब तो समा लेता हूं।
मैं जो हूं ज़िंदादिल तो आंखें फिर से मिला लेता हूं।
मुझको थी प्यास कहां इश्क में हो मुकम्मल कभी।
जो दर्द है ज़माने में उसे हैरत में भी अपना बता लेता हूं।
तालियों की ख्वाहिश कहां? ख़ुद को ख़ामोशी की सज़ा देता हूं।
मुझमें मेरा कुछ भी नहीं बाकी। ख़ुद ही ख़ुद को मिटा देता हूं।
कोई एक ज़ख्म हो सीने में तो शायद भर भी लेे ये दिल।
दिल! तुझे मैं उम्र भर तन्हा ही जीने की मशवरा देता हूं।
क्यों लगाया दिल तूने ए नादान तंज भरे इस ज़माने में?
ले हाथ मेरा थाम ले, ज़िन्दगी मैं तुझे खोई हुई यादें देता हूं।
© ज़िंदादिल संदीप