...

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एक सुबह ऐसी भी थी
भवा सुबेर सब जागै लागैं,
बाहर बुढ़वन भजन गावैं,
भीतर मेहरारुऐं सम्हारैं,
आपन आपन लरिका।

बहार तीतर थिरकै लागैं,
भीतर झाड़ू पोंछा लागै,
दुवारवा मा हल्ला करैं,
पड़की चरखी चरखा।

कुआँ मा जोरानी भीर,
भागैं सब भरै का नीर,
कउनौ जाय नदी के तीर,
लइ के मटकी मटका।

लइ के गोरुवन चलेन गदेला,
मिल के संग करैं सब खेला,
फूटे खेतन के माटी के धेला,
जो दउड़े ओहमा बरधा।

चूलहं मा फिर चउका लागा,
मक्का अरहर जोन्धरी सागा,
बटुई मा जब चाउर पाका,
पांती मा बइठै लरिका।

रामायण हैं कउनव पढ़त,
तो कउनव अहैं छावनी गढ़त,
बाकी के पंचाइत करत,
बीतत है दुपहरिया।

सांझे बाबा जाँय बजरिया,
लउकी कोंहड़ा और तरोइया,
लई के आवैं संग गुड़ लइया,
देखा सबके खुसिया।

बुढ़वन के माला डोले लागै,
दुआरे लरिका खेलन भागै,
पकर महतारी अउर लगावैं,
नहाय धोवाय के कजरा।


रतिया के जब होए भोजन पानी,
एक ठी राजा एक ठी रानी,
मचै फिर भईया जोर कहानी,
सुनावै अम्मा बाबा।

ध्रुव

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